Wednesday, August 13, 2008

(17)
शीशों से जब झांकिये, दोनों ऑंख पसार।
श्वेत चादरों का बिछा, विस्तृत पारावार॥
(18)
श्वेत रुई के ढेर से, बादल लगें पहाड़।
भागे-भागे फिर रहे, खाकर हवा लताड़॥
(19)
श्वेत सघन घन गगन में, करते फिरें किलोल।
हंसों के दल उड़ रहे, मानो डैने खोल॥
(20)
सुबह सूर्य की रश्मियाँ, ताने धवल वितान।
दाँत तले उँगली दवा, देखे सकल जहान॥
(21)
पल-पल बादल धर रहे, शैल-शिखर का रूप।
क्षितिज बेचारा रो रहा, थकी-थकी-सी धूप॥
(22)
बहुरुपिया बादल लगे, जैसे 'नटवरलाल'।
वायुयान से दीखता, चलता छलिया चाल॥
(23)
गज-शावक क्रीड़ा करें, नील गगन के बीच।
घन-दल-बल भागा करें, भय वश ऑंखें मींच॥
(24)
तारे दौडें रात में, वायुयान के साथ।
मानो ऐसा तब लगे, थामे उसका हाथ॥
ख्एम्सटर्डम से डिटरायट - वायुयान यात्रा : 08.07.03,

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